व्यंग्य
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मैंने उन पर व्यंग्य लिखा
वही उनका सबसे अच्छा विज्ञापन निकला
वही मेरी सबसे कमाऊ रचना निकली
वही हिंदी साहित्य के इतिहास में समादृत भी हुई।
अपने बारे में सोचना
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अपने बारे में सोचना
उन्हें हमेशा दुनिया के बारे में सोचने जैसा लगता था
और इस तरह दुनिया के बारे में सोचना
उन्हें हमेशा अच्छा लगता था.
Thursday, September 13, 2007
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2 comments:
मैं भी कादम्बिनी का नियमित पाठक हूँ। आजकल उसे मात्र इसलिए लेता हूँ क्योंकि पहले उसका पाठक हुआ करता था। साहित्य में हमलोगों का यह प्रयास भी देखिए- हिन्द-युग्म। आपके ब्लॉग की सूचना हम तमाम हिन्दी-प्रेमियों को दे रहे हैं।
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