बुश एक दिन राष्ट्रपति नहीं रहा।
उसने अपने सहायक से पूछा -भइये ये बता अब ये दुनिया कैसे चलेगी?
सहायक अभी भी उसका वफादार बना हुआ था।उसने जवाब दिया - भगवान भरोसे चलेगी और कैसे चलेगी?
बुश ने जवाब दिया-यही तो मुश्किल है। भगवान तो खुद मेरे भरोसे चल रहा है।
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जैसे गाय का दूध बछ्डों को कम आदमी को ज्यादा मिलता है , उसी तरह बुश के वचनों से अमेरिकी कम दुनियाभर के लोग ज़्यादा लाभान्वित हो रहे थे।
बुश के सहायक ने कहा कि सर दुनिया आपके वचनों की मुफ्तखोरी कर रही है।आपको अपने अमूल्य वचनों की रायल्टी मिलनी चाहिए ।
यह सुनकर बुश अचानक दार्शनिक बन गया। उसने कहा- छोडो यार हमने अभी आक्सीजन पर भी तो टैक्स नहीं लगाया। जब ऑक्सीजन पर टेक्स लगायेंगे तो मेरे वचनों पर भी रायल्टी लेने लगेंगे।
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बुश एक दिन खूब खुश था।
सब सहायक एकदूसरे से पूछ रहे थे कि साहब आज इतने ज़्यादा खुश क्यों हैं लेकिन कोई खुद बुश के पास जाकर पूछ नहीं रहा था। वजह यह नहीं थी कि लोग बुश से डरते थे , कारण यह था कि इसके जवाब में बुश यह कह सकता था कि मैं यह सोच-सोचकर खुश हूँ कि मैं यह तो अच्छा हुआ कि मैं इराक में फंस गया वरना क्या पता मैं भी किसी लौंडिया से फंसकर बदनाम हो जाता।
Monday, October 22, 2007
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5 comments:
आपका गद्य एक अलग सुगंधि लिए रहता है....कुछ कविता कुछ निंबंध कुछ पद्यमय ।
priy bodhisatvjee
aap mere blog ke bahut niymit pathak hain, achchha lagataa hai.
विष्णु नागर जी को कबीरा का प्रणाम। धीरेश भाई के ब्लाग से आपका पता मिला। भाई मजा आगया क्या छीला है बुश को। अपने वालो को आज भी गांधी नेहरू पर व्यंग्य सुनाने से फुर्सत नही है। इस अमेंरीकापरस्त माहौल में गुगल के ब्लाग पर एसा व्यंग्य, आपके हिम्मत की दाद देनी होगी। इनका अंग्रेजी तर्जुमा मत छाप दिजीयेगा गलती से, नहीं तो सोच लिजीये बुश को रिटार्यड होने में अभी कुछ समय बाकी है, ब्लाग तो ब्लाक करवा ही देगे, मालूम पडा इराक बाद हमारा नंबर ही न लगवा दे ये कमबख्त।
बहुत बढि़या नागर जी. आपकी कविताएं तो लाजवाब होती हीं है. गद्य पढ़कर भी मजा आ गया
बुश पर तो कह दिया आपने, अब तो रहा नहीं वह। पहला अंश तो भक्तों के लिए है।
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