Saturday, March 15, 2008

घर-बाहर

मेरा घर
मेरे घर के बाहर भी है
मेरा बाहर
मेरे घर के अन्दर भी

घर को घर में
बाहर को बाहर ढूंढकर
मैंने पाया
मैं दोनों जगह नहीं हूँ

6 comments:

Ashish Maharishi said...

मैं दोनों जगह ही नहीं हूं

वाह

Arun Aditya said...

अरथ अमित अति आखर थोरे। कमाल की कविता है।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अपनी गैर मौजूदगी को
पा लेना ही तो
सही खोज का
पथ-दर्शन है.

आपकी रचनाएँ प्रेरक हैं.
आभार !

योगेंद्र कृष्णा Yogendra Krishna said...

आपके इलाके में पहली बार आया । अच्छा लगा । लगा किताब के ही पन्ने पलट रहा हूं ।
वह भी किसी पुरानी क्लासिक के पन्ने----

योगेंद्र कृष्णा

Anonymous said...

मेरा घर
मेरा कैदखाना
कैदखाने में कैद
मेरे सपने और चुटकी भर बारूद
सपनों में कैद
मेरा घर
ये तेरा घर - ये मेरा घर
ला ला ला आ हा हहा।

चंदन कुमार मिश्र said...

अब लीजिए। आप घर ही भूल गए।