Tuesday, December 4, 2007

कविता

जीना
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कबूतर-कबूतरी के पास नौकरी नहीं है
वे दिहाड़ी मजदूर भी नहीं हैं
लेकिन उन्हें खुद भी खाना है
बच्चों को भी खिलाना है-
जो सुबह पांच बजे ही मांगने लगते है
लाओ,और लाओ, लाते क्यों नहीं , कब लाओगे?
नहीं मिले तो किसी से शिक़ायत भी नहीं करना है-
न ईश्वर से ,न आदमी से ,न व्यवस्था से
न क्रोध प्रकट करना है,न निराश होना है
न आत्महत्या करना है
न शराब पी-पी कर गम भुलाना है
खुद डरना है मगर दूसरों को डराना नहीं है
लेकिन खुद खाना है और बच्चों को खिलाना है
खुद जीना है और बच्चों को जिलाये रखना है
मौत से खुद बचना है , बच्चों को बचाना है

किसी से कोई प्रार्थना नहीं करना है
उम्मीद नहीं रखना है
किसी छप्पर के फटने का इंतज़ार नहीं करना है

जीना है
और जीना है
और जीते चले जाना है
इसी तरह , सिर्फ इसी तरह , केवल इसी तरह ।

2 comments:

बोधिसत्व said...

अच्छी कविता है सर......
पर इतने देर में क्यों आते हैं
राह देख कर थक गए हैं हम......

विजय तिवारी " किसलय " said...

naagar ji
namaskaar
aapna aur bachchon ka pet bharne ki pravritti insaan ko chhod anya men ho sakti hai. // mout se khud bachna unhi ka kaam hai .. insaan uske aage hi karta hai, sochta hai, aage badhne ki pravritti insaan ko virasat men mili hai. yahi karan hai kiuska alag astitva hai/// aapki poem men uddesh poorti nahi ho pai hai