फालतू चीज़
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घर में कोई चीज़
फालतू नहीं थी
टूटा कंघा लगता था
अमर है
भरोसा था अब खोएगा भी नहीं
घड़ी बंद थी
पुरानी थी
उस दिन से बंद थी
जिस दिन गांधीजी मरे थे
मालूम था नहीं चलेगी
मगर तब की थी
जब पिताजी विद्यार्थी थे
आंखों के सामने बार-बार आ जाती थी
और एक तलवार थी
बहुत भारी
जंग लगी
पता नहीं किस पुरखे की थी
किससे लड़ने के काम आयी थी
बेचते डर लगता था
जीवन में लौट आयेगी
सारे घर में
एक ही चीज़ फालतू थी --
दरवाजा
सबको समान रूप से रोकता था
उसे मैंने सुबह से खुला छोड़ दिया है।
(बच्चे, पिता और माँ कविता - संग्रह से )
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Wednesday, September 26, 2007
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4 comments:
ये कौन है जिसकी कविता ने बहुत कुछ कहा है ? जिसकी संवेदना दिल तक पहुँची है ? जो भी है उसकी प्रतिभा को
सलाम । सस्नेह
भाई साहब आपको यहां देखकर ही अच्छा लगा था और आज की कविता तो कमाल की है । आप इस तरफ कब आ रहे हैं बताइयेगा काफी लोग मिलना चाह रहै हैं । मेरी कहानी 'तुम लोग ' को लेकर काफी प्रतिक्रियाएं मिली हैं आपको उस के लिये धन्यवाद । आपका ही पंकज सुबीर सीहोर
आपकी "बच्चा और गेंद" किताब पढ़कर तो दंग रह गया था, कविताएं भी मुझे प्रभावित करती रही हैं। यह कविता भी अपना असर दिखाती है।
सुभाष नीरव
www.setusahitya.blogspot.com
www.vaatika.blogspot.com
realy very intresting & mindblowing
you should continue......
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